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एक ज्वलंत प्रश्न

meri kalam, mere jazbaat
meri kalam, mere jazbaat
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शब्द
~~~
शब्द..
ऐसे ही नहीं उकर आते
अभिव्यक्ति यूँही नहीं ले लेती है आकार
देर तक
धीमे-धीमे सुलगती हैं
सीले से भावों की लकड़ियाँ
और
विचारों के कोयले
अस्पष्टता के धुएँ में
धुंधला जाती है ज़ुबान
भीतर ही भीतर सुलगते अहसासों पर
जमती जाती है
अव्यक्तता की राख…
फिर अचानक कभी
चटक कर फूटता है कोई भाव
और शब्दों की चिंगारियाँ
फूट बिखरती हैं फिजा में
कुछ शब्द हाथ आते हैं
कुछ छूट निकलते हैं
कुछ शब्दों को छूने से
जलती है जुबां
कुछ से कलम और कुछ से जहाँ
कुछ शब्द चिंगारियाँ
आ गिरती हैं मानस पटल पर
कुछ ठंडी होने पर
स्याही से उनकी
उभरते हैं कुछ अनमोल से
शब्द

हे पितृसत्तात्मक समाज!

देना होगा तुझे

उत्तर यह आज.

लाने को अस्तित्व संतान का

है उत्तरदायी यदि पिता

और माध्यम है माँ

क्यों चुराता है मुँह उत्तरदायी

अपने उत्तरदायित्व से

क्यों पालन संतान का बन जाता कर्त्तव्य

मात्र माध्यम का

क्यों सारे अधिकारों को हाथ में ले

लगाता जाता कर्त्तव्यों का ढेर

स्त्री के सर

क्यों पह अधिकारी है सदा

प्रताड़ना, वंचना, उपेक्षा की ही

शारीरिक प्रबलता के भ्रम  में

हर बार मिथ्या अहम् में

जमाता है धौंस,

चलाता है जोर

कभी नारी मन,कभी उसकी आत्मा

कभी उसका शरीर

कर डालता क्षत – विक्षत

क्यों मातृसत्ता सतत

विवश, लाचार, संतप्त

किस उधार का

वह तिल-तिल जल

चुका रही है ब्याज

देना होगा तुझे उत्तर आज

हे पितृसत्तात्मक समाज !

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