meri kalam, mere jazbaat
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तृष्णा मृग की ज्यों उसे, सहरा में भटकाय |
तप्त रेत में भी उसे, जल का बिम्ब दिखाय ||
जल का बिम्ब दिखाय, बुझे पर प्यास न उसकी|
त्यों माया से होय , बुद्धि कुंठित मानव की ||
प्रज्ञा का पट खोल, नाम ले राधे – कृष्णा |
सुमिरन करते साथ, मिटेगी हरेक तृष्णा ||
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